राजनीति वह खेल है जिसमें सभी नियमों को ताक में रखकर गेंद अपने ही हाथ में रखी जाती है। प्राचीन काल से लेकर आजतक के इतिहास से यह सात होता है कि जो भी व्यक्ति या वर्ग सत्ता में हुआ , उसने उससे लिपटे रहने के लिए सिद्धांतों की आहुति को कोई महत्व नहीं दिया। इसी प्रकार जिस व्यक्ति या वर्ग ने सत्ता करना चाहा वह किसी भी हथियार के प्रयोग में नहीं हिचकिचाया।
प्राचीन काल में योद्धा -नेता अधिकाधिक भूमि अपने शासनाधीन रखने हेतु प्रायः युद्ध किया करते थे। वे शासन स्थापित करने के लिए रणनीति में छल एवं भेद की नीति अपनाने में कभी नहीं चूकते। जब राजाओं ने देखा कि प्रजा में उनका प्रभाव क्षीण हो रहा है तो उन्होने अपने को सर्वोपरि बनाये रखने के लिए 'राजा के दैवी अधिकार' के सिद्धांत का प्रचार करना प्रारम्भ किया। किन्तु प्रजा के वर्ग ने भी उनसे सत्ता छीनने के लिए प्रत्येक मार्ग को उचित समझा।
आज भी प्रत्येक राजनीतिज्ञ सत्ता की गोद में बैठने के लिए बहुमूल्य मूल्यों को रौंदते हुए चला जाता है। समाचार पत्रों में प्रायः देश -विदेश के नेताओं के स्वयं अथवा उनके सम्बन्धी के ऐसे अशोभनीय कार्य दृष्टिगोचर होते हैं जिनके द्वारा उन्होंने सत्ता प्राप्त की या उसे प्राप्त किये रखा। सत्तारूढ़ होने के लिए राजनीतिज्ञ समाज में जाति , सम्प्रदाय, लिंग , क्षेत्र रुपी विष विपणन करके समाज को कोढ़ी बनाने से नहीं चूकते। वे यदि सरकारी तंत्र का प्रयोग कर सकते हैं तो सत्ता - लिप्त रहने के लिए उसका दुरुपयोग करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। जनता जिस व्यक्ति या वाद में श्रद्धा रखती है , सभी प्रकार के नेता उसी व्यक्ति या वाद के अग्रणी अनुयायी होने का दावा करते हैं। क्यों? जनमत प्राप्त कर सत्ता प्राप्त करने के लिए।
आजकल समाजवाद की सभी दुहाई देते हैं। रूस अपनी व्यवस्था को समाजवादी व्यवस्था कहता है, हिटलर ने नाज़ीवाद को एक प्रकार के समाजवाद की संज्ञा दी थी। भारत विभिन्न दल - जनता पार्टी , कम्युनिस्ट पार्टी , कांग्रेस पार्टी - अपने अपने को समाजवादी विचारधारा का सबसे बड़ा भक्त बताते हैं। इस बेचारे समाजवाद की , राजनीतिज्ञों द्वारा सत्तारूढ़ होने के लिए , जितनी भी छीछालेदर की जाय कम ही है।
भारत में नीचे से लेकर ऊपर तक के सभी नेता, जो कि विभिन्न दलों में हैं , अपने को असली गांधीवादी बताते हुए चुनाव - मंच पर आते हैं। विभिन्न घोषणा - पत्रों में गांधीवादी विचारधारा को समाज के सभी क्षेत्रों में स्थापित करने की शपथ ली जाती है। यह नाटक मात्र जनता का मत प्राप्त करने के लिए होता है क्योंकि वे जानते हैं कि भारतीय जान गांधी जी को ईश्वर - तुल्य मानते हैं।
बहुत से देशों में राजनीतिज्ञ सत्ता के लिए इतने अधिक भूखे होते हैं जितने कि कुछ लोग सुरा व सुंदरी के लिए। ये राजनीतिज्ञ सत्ता को पकड़े रहने के लिए सरकारी तंत्र का इस सीमा तक दुरुपयोग करते हैं कि वे सभी नैतिक सिद्धांतों को सत्ता हेतु हवन में झोंक देते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका , जो कि अत्यधिक विकसित देश है , में निक्सन की सत्ता - पिपासा उनके 'वाटरगेट काण्ड ' नामक घटना से उजागर होती है। इतने अधिक साक्षर व शिक्षित देश में ही इस प्रकार की घटना नहीं हुई अपितु सुदूर पूर्व में फिलीपींस में एक शासक द्वारा सत्ता को अपनी बपौती बनाने के लिए प्रजातंत्र के छद्मवेश में कितने ही अप्रजातांत्रिक व अशोभनीय कदम उठाये जा रहे हैं। इसी प्रकार विश्व के विभिन्न देशों में बहुत सी विप्लवकारी घटनाएं होती हैं जिनमें एक व्यक्ति दूसरे को सत्ताच्युत करने के लिए बहुत से सशस्त्र व निशस्त्र लोगों को मौत के घाट निस्संकोच उतार देता है। ये दृश्य अफ्रीका , एशिया , व दक्षिण अमेरिका में समय समय पर देखने को मिलते हैं। हमारे देश में भी विभिन्न दल सत्ता -प्राप्ति हेतु अनैतिअप्रजातांत्रिक कदम उठाने व लोक - प्रतिनिधित्व अधिनियम के उल्लंघन करने में एक -दूसरे से तनिक भी पीछे नहीं रहना चाहते।
विभिन्न काल में कुछ देशों में राजनीतिज्ञों ने अधिनायकवादी शासन की स्थापना की। इस प्रकार की व्यवस्था में जनता की भावनाओं व विचारों को अपनी कुर्सी बचाये रखने के लिए इस सीमा तक दबाया जाता है कि मानव को मानव नहीं समझते। वे अपनी व्यवस्था को अधिनायकवादी कभी नहीं कहते अपितु उसे प्रजातन्त्री की संज्ञा देते हुए विभिन्न तर्कों द्वारा पूर्णतया न्यायसंगत बताते हैं। जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों पर अत्याचार करते हुए नार्डिक वर्चस्व का प्रचार किया। रूस में स्टालिन ने अपने अधिनायकवाद की पुष्टि मार्क्स व लेनिन की पुस्तकों से की। इसी प्रकार चीन में माओत्सेतुंग ने अपनी व्यवस्था को उचित बताने के लिए किया। इटली में मुसोलिनी ने फासीवाद के झंडे के नीचे रोम साम्राज्य की कल्पना करते हुए उसे हर प्रकार से न्यायोचित ठहराया।
इस प्रकार राजनीति व्यक्ति की सत्ता - भूख से सम्बंधित गतिविधि है। राजनीतिक खेल सत्ता के चारों ओर घूमता है और इस खेल के नियम उल्लंघन करके ही स्वीकार किये जाते हैं। संभवतया बुरे कार्यकलापों को शोभनीय व सर्वमान्य रूप में प्रस्तुत करने की कला व सामर्थ्य सभ्यता का गुण है।
- कृष्ण चंद्र पाण्डे