हाल ही में पूरे परिवार का प्रोग्राम बना कुल देवी के मंदिर लखुना देवी मंदिर जाने का। मैं पहले तो झिझकी 'लखुना देवी मंदिर ??' नाम ही कैसा है लेकिन फिर झट से तैयार हो गयी। हमें देवी की पूजा करनी थी और उन पर कुछ खाना प्रसाद के रूप में चढ़ाना था।
कार्यक्रम शनिवार का बना। तय हुआ कि शुक्रवार की रात तैयारियां कर ली जाएँगी ताकि शनिवार की तड़के सुबह हम समय पे जा के लौट सकें। तो शुक्रवार को ही माँ ने सब काम करने वालियों को बता दिया कि शनिवार को केवल शाम को ही आना क्योंकि हम लोग अपनी कुल देवी के मंदिर लखुना जी के दर्शन करने जा रहे हैं।
इंतज़ार की घडी खत्म हुई और शुक्रवार की शाम आई.… हम सब शाम ५ बजे से ही जुट गए। पौधों में पानी डाला , खाना बनाने वाली के आने से पहले सूजी का हलुआ बनाया , चौदह चौदह पूड़ियाँ बनायीं, अपने लोगों के रास्ते का भोजन पकाया - पूड़ी , आलू की सब्ज़ी और मेरे लिए फल एक पन्नी में पैक करके फ्रिज में तैयार कर लिए। एक ज़्यादा बोलने वाली काम करने वाली ने कहा , 'दीदी, देवी को बासी खाना चढ़ाएँगी। '
मैंने कहा , 'नहीं सब श्रद्धा की बात है। सुबह उठ के तुरंत निकलना है। अंदर से भरपूर श्रद्धा है। '
'कोई बात नहीं। ठीक है, ' उसने कहा दादी अम्मा की तरह।
हालांकि मुझे उनका बातूनीपन बहुत पसंद है , मैं भी उनको उसी तरह जवाब देने लगी हूँ। रात को जब १० बजे टीवी देखने का समय आया तो मैं घबराई कि सुबह इतनी जल्दी कैसे उठूंगी। ३:३० बजे उठकर पोछा लगना था , पौधों में पानी डालना था और गाड़ी साफ़ करनी थी। तो मैने सबसे कहा कि मैं जल्दी सोने जा रही हूँ। लेकिन हाय री किस्मत। जब जल्दी सोना है तब निगोड़ी नींद ही नहीं आती। बिस्तर में थोड़ी देर हिलडुलकर मैं फिर उठ बैठी और टीवी देखने लगी। आखिर घडी में १० बजे और तभी मुझे नींद आ पायी।
सुबह ३:३० बजे अलार्म बजा और मैं थोड़ी देर करवट लेकर उठ गयी। नित्य कामों से निवृत्त होकर झाड़ू उठायी और घर भर में एक हाथ लगा दिया। कूड़ा इतना निकला जैसे पिछले दिन झाड़ू लगी ही न हो। तुरंत डंडे की मदद से पोछा भी लगा दिया। झट से घर के ताले खोले और ऊपर पौधों में पानी डाला। तब तक पिताजी गाड़ी साफ़ कर आये। उसके बाद सबने नहाया धोया , मम्मी ने फ्रिज से निकालकर सारा खाना और प्रसाद दो डलियों में रखा और ठीक ५ बजे हम घर से रवाना हुए।
रास्ते में ऑर्डनेन्स फैक्ट्री देखी और चूंकि पिताजी आगे ड्राइव कर रहे थे मैं पीछे की सीट में अच्छी तरह चादर बिछा के सो गयी। सोते सोते प्रारब्ध मिटाने वाली चौपाई का हलके हलके जाप करती गयी। जाप करते करते कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला। इतनी अच्छी सड़क कि एक बार भी गचका नहीं लगा। अकबरपुर से सिकंदरा तक तो बिलकुल ही सरसराता हुआ राजमार्ग था।
१२५ किलोमीटर का सफर हमने २:३० घंटे में तय किया और पौने आठ बजे हम मंदिर के सामने वाली दुकान में जूते उतारकर चढ़ावे का सामान ले रहे थे। तभी मुझे वहां एक हिजड़ा दिखाई दिया। मंदिर से नगाड़ों की आवाज़ आ रही थी। ढोल और नगाड़ों के बीच हमने देखा कि वहां दो मिटटी के ज़मीन से सिर्फ डेढ़ - दो फुट ऊंचे चबूतरे बने थे. प्रत्येक चबूतरे में से एक लम्बा सा डंडा निकल रहा था था जिसमें लाल रंग के झंडे लगे थे। इन्ही डंडों के आगे छोटी सी मूर्तियों की कतार - सी थी जिस पर गेरुआ रंग था। ये दोनों मूर्तियां दो कालिका देवी बहनों की थीं। चबूतरों से कुछ दूर एक मज़ार थी - सय्यद बाबा की। हमने पहले पूड़ियाँ निकाल कर दोनों देवियों पे चढ़ाईं फिर बाहर से खरीदा हुआ चढ़ावा बाबा की मज़ार पे चढ़ाया। सभी पंडितों को दक्षिणा दी और फिर एक कोने पर जो नगाड़े बज रहे थे वहां हाथों में थोड़ा गेहूं भरके , हाथ ऊपर करते हुए कुछ चक्कर लिए और नाचा। मम्मी ने नाचते हुए झट से फोटो खींच ली। पापा हम दोनों को पूजा करते देख रहे थे और एक कोने में बैठकर सब कुछ निहार रहे थे. यह एक छोटा सा मंदिर था जिसकी दीवारें बहुत ऊंची थीं और सफ़ेद चूने से पुती थीं। यहाँ लोगों की संख्या उतनी नहीं थी जैसे कि पनकी के हनुमान मंदिर में किसी मान्यता - प्राप्त मंदिर में। लेकिन यही इस जगह को और धार्मिकता प्रदान कर रही थी। बाहर निकलते ही एक महिला मिली जो काली माता के कपड़ों में थी , चेहरा रंगा हुआ था। एक सेकंड के लिए मैं तो डर ही गयी। फिट ठिठक कर उसने जब दान का कटोरा आगे बढ़ाया तो कुछ रुपये मैने उसमें डाल दिए। तभी वह हिजड़ा आया जो उस समय मुझे दिखाई दिया था। उसका चेहरा काफी भयानक था जिसको वो साड़ी के पल्लू से आधा ढके था। उसको भी थोड़ा दान दे कर हम लोग चलते बने। एक ही घंटे में दर्शन और पूजा समाप्त हो गयी थी।
तभी मम्मी को भूख लगी। तो गाडी को किनारे करके एक छाँव दार वृक्ष के नीचे रोककर हमने पूड़ियाँ और हलुआ निकाल लिया। मैने अपने लिए एक खीरा काटा और आधे घंटे में हमने भोजन कर लिया। लेकिन अभी भी इच्छा थी की रास्ते में सूर्य ढाबा में रुका जाए। मेरे अंदर एक अजीब सी भावना आ गयी थी जिसको मैं समझा नहीं सकती। भक्ति भी नहीं, आसक्ति भी नहीं, आस्था भी नहीं, श्रद्धा भी नहीं , प्रेम भी नहीं , समरसता भी नहीं, बस भाव - विभोर थी। लग रहा था मम्मी और पापा इतनी बातें क्यों कर रहे हैं , बस मुझे मंदिर से निकलने के बाद जो महसूस हुआ है, उसी में डूबे रहने दें। सब एक सपने की तरह चल रहा था।
एक घंटे बाद हम सूर्य ढाबा पहुंचे जहाँ मम्मी ने परांठा खाया, मैने चाय पी और फिर बाहर निकालकर हमने कुछ फोटो खींचीं। यह काफी बड़ा होटल था जहाँ रास्ते भर के पर्यटक चाय - पानी के लिए रुक रहे थे। यह खचाखच भरा था।
आधे घंटे रुककर हम यहाँ से चल दिए और फिर लगभग डेढ़ घंटे में हम घर पहुँच गए। मुझे आज भी लगता है वह मंदिर मुझे बुला रहा है और वहां का सादापन और उस जगह की मार्मिकता मुझसे अवर्णनीय है। मैं अभी भी लखुना देवी के मंदिर के बारे में सोचती हूँ निस्तब्धता अनुभव करती हूँ। आप भी वहां अवश्य प्रोग्राम बनाएँ।
कार्यक्रम शनिवार का बना। तय हुआ कि शुक्रवार की रात तैयारियां कर ली जाएँगी ताकि शनिवार की तड़के सुबह हम समय पे जा के लौट सकें। तो शुक्रवार को ही माँ ने सब काम करने वालियों को बता दिया कि शनिवार को केवल शाम को ही आना क्योंकि हम लोग अपनी कुल देवी के मंदिर लखुना जी के दर्शन करने जा रहे हैं।
इंतज़ार की घडी खत्म हुई और शुक्रवार की शाम आई.… हम सब शाम ५ बजे से ही जुट गए। पौधों में पानी डाला , खाना बनाने वाली के आने से पहले सूजी का हलुआ बनाया , चौदह चौदह पूड़ियाँ बनायीं, अपने लोगों के रास्ते का भोजन पकाया - पूड़ी , आलू की सब्ज़ी और मेरे लिए फल एक पन्नी में पैक करके फ्रिज में तैयार कर लिए। एक ज़्यादा बोलने वाली काम करने वाली ने कहा , 'दीदी, देवी को बासी खाना चढ़ाएँगी। '
मैंने कहा , 'नहीं सब श्रद्धा की बात है। सुबह उठ के तुरंत निकलना है। अंदर से भरपूर श्रद्धा है। '
'कोई बात नहीं। ठीक है, ' उसने कहा दादी अम्मा की तरह।
हालांकि मुझे उनका बातूनीपन बहुत पसंद है , मैं भी उनको उसी तरह जवाब देने लगी हूँ। रात को जब १० बजे टीवी देखने का समय आया तो मैं घबराई कि सुबह इतनी जल्दी कैसे उठूंगी। ३:३० बजे उठकर पोछा लगना था , पौधों में पानी डालना था और गाड़ी साफ़ करनी थी। तो मैने सबसे कहा कि मैं जल्दी सोने जा रही हूँ। लेकिन हाय री किस्मत। जब जल्दी सोना है तब निगोड़ी नींद ही नहीं आती। बिस्तर में थोड़ी देर हिलडुलकर मैं फिर उठ बैठी और टीवी देखने लगी। आखिर घडी में १० बजे और तभी मुझे नींद आ पायी।
सुबह ३:३० बजे अलार्म बजा और मैं थोड़ी देर करवट लेकर उठ गयी। नित्य कामों से निवृत्त होकर झाड़ू उठायी और घर भर में एक हाथ लगा दिया। कूड़ा इतना निकला जैसे पिछले दिन झाड़ू लगी ही न हो। तुरंत डंडे की मदद से पोछा भी लगा दिया। झट से घर के ताले खोले और ऊपर पौधों में पानी डाला। तब तक पिताजी गाड़ी साफ़ कर आये। उसके बाद सबने नहाया धोया , मम्मी ने फ्रिज से निकालकर सारा खाना और प्रसाद दो डलियों में रखा और ठीक ५ बजे हम घर से रवाना हुए।
रास्ते में ऑर्डनेन्स फैक्ट्री देखी और चूंकि पिताजी आगे ड्राइव कर रहे थे मैं पीछे की सीट में अच्छी तरह चादर बिछा के सो गयी। सोते सोते प्रारब्ध मिटाने वाली चौपाई का हलके हलके जाप करती गयी। जाप करते करते कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला। इतनी अच्छी सड़क कि एक बार भी गचका नहीं लगा। अकबरपुर से सिकंदरा तक तो बिलकुल ही सरसराता हुआ राजमार्ग था।
१२५ किलोमीटर का सफर हमने २:३० घंटे में तय किया और पौने आठ बजे हम मंदिर के सामने वाली दुकान में जूते उतारकर चढ़ावे का सामान ले रहे थे। तभी मुझे वहां एक हिजड़ा दिखाई दिया। मंदिर से नगाड़ों की आवाज़ आ रही थी। ढोल और नगाड़ों के बीच हमने देखा कि वहां दो मिटटी के ज़मीन से सिर्फ डेढ़ - दो फुट ऊंचे चबूतरे बने थे. प्रत्येक चबूतरे में से एक लम्बा सा डंडा निकल रहा था था जिसमें लाल रंग के झंडे लगे थे। इन्ही डंडों के आगे छोटी सी मूर्तियों की कतार - सी थी जिस पर गेरुआ रंग था। ये दोनों मूर्तियां दो कालिका देवी बहनों की थीं। चबूतरों से कुछ दूर एक मज़ार थी - सय्यद बाबा की। हमने पहले पूड़ियाँ निकाल कर दोनों देवियों पे चढ़ाईं फिर बाहर से खरीदा हुआ चढ़ावा बाबा की मज़ार पे चढ़ाया। सभी पंडितों को दक्षिणा दी और फिर एक कोने पर जो नगाड़े बज रहे थे वहां हाथों में थोड़ा गेहूं भरके , हाथ ऊपर करते हुए कुछ चक्कर लिए और नाचा। मम्मी ने नाचते हुए झट से फोटो खींच ली। पापा हम दोनों को पूजा करते देख रहे थे और एक कोने में बैठकर सब कुछ निहार रहे थे. यह एक छोटा सा मंदिर था जिसकी दीवारें बहुत ऊंची थीं और सफ़ेद चूने से पुती थीं। यहाँ लोगों की संख्या उतनी नहीं थी जैसे कि पनकी के हनुमान मंदिर में किसी मान्यता - प्राप्त मंदिर में। लेकिन यही इस जगह को और धार्मिकता प्रदान कर रही थी। बाहर निकलते ही एक महिला मिली जो काली माता के कपड़ों में थी , चेहरा रंगा हुआ था। एक सेकंड के लिए मैं तो डर ही गयी। फिट ठिठक कर उसने जब दान का कटोरा आगे बढ़ाया तो कुछ रुपये मैने उसमें डाल दिए। तभी वह हिजड़ा आया जो उस समय मुझे दिखाई दिया था। उसका चेहरा काफी भयानक था जिसको वो साड़ी के पल्लू से आधा ढके था। उसको भी थोड़ा दान दे कर हम लोग चलते बने। एक ही घंटे में दर्शन और पूजा समाप्त हो गयी थी।
तभी मम्मी को भूख लगी। तो गाडी को किनारे करके एक छाँव दार वृक्ष के नीचे रोककर हमने पूड़ियाँ और हलुआ निकाल लिया। मैने अपने लिए एक खीरा काटा और आधे घंटे में हमने भोजन कर लिया। लेकिन अभी भी इच्छा थी की रास्ते में सूर्य ढाबा में रुका जाए। मेरे अंदर एक अजीब सी भावना आ गयी थी जिसको मैं समझा नहीं सकती। भक्ति भी नहीं, आसक्ति भी नहीं, आस्था भी नहीं, श्रद्धा भी नहीं , प्रेम भी नहीं , समरसता भी नहीं, बस भाव - विभोर थी। लग रहा था मम्मी और पापा इतनी बातें क्यों कर रहे हैं , बस मुझे मंदिर से निकलने के बाद जो महसूस हुआ है, उसी में डूबे रहने दें। सब एक सपने की तरह चल रहा था।
एक घंटे बाद हम सूर्य ढाबा पहुंचे जहाँ मम्मी ने परांठा खाया, मैने चाय पी और फिर बाहर निकालकर हमने कुछ फोटो खींचीं। यह काफी बड़ा होटल था जहाँ रास्ते भर के पर्यटक चाय - पानी के लिए रुक रहे थे। यह खचाखच भरा था।
आधे घंटे रुककर हम यहाँ से चल दिए और फिर लगभग डेढ़ घंटे में हम घर पहुँच गए। मुझे आज भी लगता है वह मंदिर मुझे बुला रहा है और वहां का सादापन और उस जगह की मार्मिकता मुझसे अवर्णनीय है। मैं अभी भी लखुना देवी के मंदिर के बारे में सोचती हूँ निस्तब्धता अनुभव करती हूँ। आप भी वहां अवश्य प्रोग्राम बनाएँ।
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